आज पतंग को उड़ते देखा, तो रहा न गया,
मैंने पूछ ही लिया, कितनी खà¥à¤¶ होती होगी न तà¥à¤®,
जब उड़ती हो इस कदर मदमसà¥à¤¤, बस चल देती हो,
जहां à¤à¥€, कहीं à¤à¥€
हवा के संग-संग, लिठकई रंग, अपनाठअपना ढंग
पतंग मेरे क़रीब आई, मंद मंद मà¥à¤¸à¥à¤•à¤¾à¤ˆ,
फिर कहने लगी हां, ख़à¥à¤¶ तो बहà¥à¤¤ हूं मैं,
उड़ सकती हूं,
छू सकती हूं ऊंचाईयों को,
पर तà¥à¤® मेरी तरह न उड़ना,
कि उड़ रहे हैं आसमान में और डोर किसी और के हाथ में है ।
सोचने पर मजबूर मैं,
कहने लगी अपने आप से,
बात में दम है,
आज़ादी अब à¤à¥€ कम है,
चाहिठमà¥à¤à¥‡ थोड़ा और,
बात à¤à¥€ है करने की ग़ौर,
पैमाना बदलने की ज़रूरत है, मायनों में तबà¥à¤¦à¥€à¤²à¥€ ज़रूरी है ।
मैं à¤à¥€ छू जाऊं आकाश,
लिठअपना दृषà¥à¤Ÿà¤¿à¤•à¥‹à¤£, अपनी आवाज़
आखिर इसके बिना आज़ादी अधूरी है ।
By: Dr. Venu Sharma
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Dr. Venu Sharma is from Mandsaur. She loves to teach, read, and write.
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