आज पतंग को उड़ते देखा, तो रहा न गया,
मैंने पूछ ही लिया, कितनी खुश होती होगी न तुम,
जब उड़ती हो इस कदर मदमस्त, बस चल देती हो,
जहां भी, कहीं भी
हवा के संग-संग, लिए कई रंग, अपनाए अपना ढंग
पतंग मेरे क़रीब आई, मंद मंद मुस्काई,
फिर कहने लगी हां, ख़ुश तो बहुत हूं मैं,
उड़ सकती हूं,
छू सकती हूं ऊंचाईयों को,
पर तुम मेरी तरह न उड़ना,
कि उड़ रहे हैं आसमान में और डोर किसी और के हाथ में है ।
सोचने पर मजबूर मैं,
कहने लगी अपने आप से,
बात में दम है,
आज़ादी अब भी कम है,
चाहिए मुझे थोड़ा और,
बात भी है करने की ग़ौर,
पैमाना बदलने की ज़रूरत है, मायनों में तब्दीली ज़रूरी है ।
मैं भी छू जाऊं आकाश,
लिए अपना दृष्टिकोण, अपनी आवाज़
आखिर इसके बिना आज़ादी अधूरी है ।
By: Dr. Venu Sharma
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Dr. Venu Sharma is from Mandsaur. She loves to teach, read, and write.
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